मोहर्रम का खास महत्व क्या है क्यों मनाया जाता है मोहर्रम
नई दिल्ली। इस्लामिक कैलेंडर में दो महीनों, रमजान और मोहर्रम का खास महत्व है। मोहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है और आज (29 अगस्त) मोहर्रम की दसवीं तारीख है। मोहर्रम की दसवीं तारीख इस्लामिक इतिहास में खास जगह रखती है। इस्लामिक इतिहास के मुताबिक, मोहर्रम की दसवीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नवासे हुसैन को शहीद कर दिया गया था। इस दिन को रोज-ए-अशुरा कहते हैं। आशुरा का अर्थ दसवें है। आशूरा को दुनियाभर में मुसलमान गम और मातम का इजहार करते हैं। खासतौर से शिया मुसलमान मुहर्रम को ज्यादा महत्व देते हैं।
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अशुरा पर नहीं पहने जाते नए कपड़े, कोई सेलीब्रेशन नहीं होता
मोहर्रम में शिया समुदाय महीने की पहली से नौ तारीख तक रोजा रखते हैं, वहीं सुन्नी समुदाय के लोग 9वें और 10वें दिन रोजा रखते हैं।
दोनों समुदाय में मोहर्रम मनाने के तरीकों में थोड़ा फर्क हैं। शिया समुदाय के लोग मोहर्रम में ना ही कोई खुशी मनाते हैं और ना ही किसी की खुशी में शामिल होते हैं। किसी भी तरह के सेलीब्रेशन इस महीने में नहीं होते। मुहर्रम में शियाओं में शादियां भी नहीं होतीं। सुन्नियों में भी महीने में मातम का इजहार किया जाता है लेकिन शरीर पर जंजीरों से वार कर खून निकालना और सड़कों पर ताजिया निकालने का रिवाज सुन्नियों में नहीं है।

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क्या है हुसैन और उनके परिवार का इतिहास
हुसैन पैंगबर मोहम्मद की बेटी फातिमा और चौथे खलीफा हजरत अली के दूसरे बेटे थे। हुसैन के बड़े भाई हसन थे। हुसैन को शिया मुस्लिम अपना तीसरा इमाम मानते हैं। पैगंबर मोहम्मद के दुनिया से चले जाने के बाद उनके परिवार को कई तरही की लड़ाइयों का सामना करना पड़ा। हुसैन कम ही उम्र के थे जब उनके माता-पिता और फिर उनके बड़े भाई को भी कत्ल कर दिया गया। हसन की मौत के बाद यजीद निया से चले जाने के बाद दुश्मन हुसैन पर दबाव बनाने लगा कि वह उस वक़्त के जबरन खलीफा बने यजीद ने उन पर जुल्म शुरू कर दिए। माना जाता है कि 680 ई. में इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ दिया और वहां से निकल गए लेकिन यजीद उनको जिंदा नहीं छोड़ना चाहता था।
करबला में बेदर्दी से कत्ल किए गए हुसैन
हुसैन मदीना छोड़ अपने कुछ साथियों के साथ इराक के शहर करबला में पहुंच गए। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक मोहर्रम की दो तारीख को कर्बला पहुंचे थे। मोहर्रम की सातवीं तारीख को उनका यजीद ने उनके काफिले का पानी बंद कर दिया और सिर झुकाकर उसे खलीफा मान लेने को कहा। जब हुसैन ने देखा कि यजीद से उनका सामना होना है, तो उन्होंने अपने साथियों से उन्हें छोड़कर चले जाने को कहा क्योंकि यजीद की फौज के सामने जीतना नामुमकिन था। कोई उन्हे छोड़कर नहीं गया, मुहर्रम की दसवीं तारीख को यजीद ने हमला किया और हुसैन के काफिले के 72 लोगों को मार डाला। इसके बाद से दुनियाभर के मुसलमान इस तारीख को रोज-ए-आशूरा के तौर पर मनाते हैं।
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